GENT में सरदारजी की एक दुकान है वहाँ रोज़ ही हम दोनों चले जाते हैं जो कुछ घर का सामान चैहिये होता है वोह ले लेते हैं कुछ अपने देश की बात करते हैं और बराबर ग्रन्थ साहेब का पाठ चलता रहता है वोह यहाँ के माहोल में जहां डूच ज़बान बिलकुल न समाजः में आती हो वाणी लगता है अपनी ज़बान में चल रही है.
आज सरदार जी बहुत दुखी लगे , कारण पूछने पर उनहूने बताया एक नेता जिसका रोल १९८४ के दंगों में था वोह आज लुएवें में आया हुआ है. ये दंगे भी कितने भयानक होते हैं आज २७ साल बाद भी ज़ख़्म ताजे हैं
इस पर बशीर बद्र का एक शेर याद आ गया
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में
Last updated on 23rd June, 1998
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