नसीब हैं की उनके आँगन में बुलबुल ने बसेरा डाल लिया है हम ने आज तक कोई बुलबुल नहीं देखी न उसकी आवाज़ सुनी बस किताबों में उसका तजकिरा देखा है । आज इन्टरनेट पर देखा भी और आवाज़ भी सुनी, वाह वाह। कोएल तो कूकती है और हम जैसे बूढ़े भी सुन लेते हैं लेकिन बुलबुल की अपनी एक दुनया होती है। यहाँ न्यू ज़ीलैण्ड में सैकड़ों चिड़ियाँ होती हैं और खूब बोलती हैं लेकिन बुलबुल और कोएल नहीं देखी। उर्दू शायरी में बुलबुल को एक खास मुकाम हासिल है लेकिन कोयल को किसी शाएर ने जहाँ तक मुझे मालूम है नहीं अपनाया। अजीब बात है मुझे एक भी शेर बुलबुल वाला याद नहीं आ रहा है सिवाए इसके, की "हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलसितां हमारा और इस शेर में रवाइती हुस्न, शौक़ और इश्त्याक का फुक्दान है । आज ३१ मई को सलीम साहेब की बदौलत मुझे यह शेर मिला :
यह आरज़ू थी तुझे गुल के रू बरू करते
हम और बुक्ल्बुले बेताब गुफ्तुगू करते
(आतिश)
वैसे चिड़ियों, मौसम, रंगों और फूलों से रस्मो राह रखने वालों से वास्ता रख सकते हो। उन पर भरोसा कर सकते हो। वह एक खूबसूरत दिल के मालिक होते हैं। यहाँ पर मुझे मजहर याद आ रहे हैं।सुबूत के तौर पर वोह बुलबुल जो उनके साथ रहती है।
शकील अख्तर
अगर किसी के घर में बुलबुल ने घोसला रखना छोड़ दिया हो और इस कमी को पूरा करने के लिए अपनी बीवी को बुलबुल कहने लगे तो क्या वोह फिर भी खूबसूरत दिल का मालिक बना रह सकता है?
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