Dekh to dil k jan say uthta hai
Ye dhuan sa kahan say uthta hai
Ye dhuan sa kahan say uthta hai
मीर तकी मीर की ये ग़ज़ल और उसपर मेहँदी हसन की आवाज़ ने करोरों उर्दू-हिंदी जानने वाले और लाखों ऐसे शौकीन जो हिंदी-उर्दू नहीं जानते मगर मौसिकी , सुर ताल का ज्ञान रखते हैं उनका दर्द समझा है , दिल बहलाया , मनोरंजन किया है ये सिलसिला १८१० से चल रहा था मगर मेंहदी हसन ने पिछले ५० सालों मैं इसको खास-आम सबके करीब पहुंचा दिया मैं भी एक अदना सा मीर और मेहँदी हसन का मुरीद हूँ खासकर जो करब , दर्द , गर्दन मोडने का अंदाज़ जनाब मेहँदी हसन के चेहरे
पर होता था
मगर अब जब अपने पर पड़ी अलग अलग दर्द शरू हुए जिनका ORIGIN और END ही नहीं समझ मैं आता है तब मैं ने शायरी और गायकी के करब को समझने की कोशिश की , तब मैं इन दोनों की अजमत का काइल हो गया की इतनी तकलीफ मैं लिखना या गाना दोनों ही न-मुमकिन .
आप ये न समझें की मैं जो लिख रहा हूँ ये मेरी जिद्दत है , जनाब ये हकीकत है
"मुझको शायर न कहो "मीर' की साहब मैं ने ,
दर्दो-गम जमा किये कितने तो दीवान किया "
अच्छा अब तो दर्द भी कम है इजाज़त दें..........
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