Saturday, 7 May 2011

ज़िन्दगी ओ ज़िन्दगी

ज़िन्दगी भी क्या अजब चीज़ है की जितना उसको सहारा दो उतनी ही वह हम से रूठती जाती है। मिसाल के तौर पर आप शमा जलाएं तो आंध्यां आयें गी। कश्ती का तूफानों से गहरा रिश्ता तो आप को पता ही है, और तो और जहाँ आप ने क़दम निकाला के केले का छिलका आप का मुन्तजिर है। बीमारी में आदमी दवा इस लिए नहीं खाता है की वोह ठीक हो जाये गा, बल्कि इस लिए के आखिर डाक्टर को भी जिंदा रहना है, वरना इतने जानवर हैं सब बीमार पड़ कर बिना किसी दवाई के खुद बखुद ठीक हो ही जाते हैं। या मर जाते हैं। हम भी दवाई खा कर यही करते हैं। जीना मरना एक खेल है जिस पर दुनिया का कारोबार चल रहा है अगर यह न हो तो कौन इस को पूछे। जहाँ यह ज़िन्दगी और मौत नहीं वहां के मौसम जैसे भी हों किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता। कुछ न था तो खुदा था उस वक़्त बस एक जामोद की सी कैफ़ियत थी। इनसान को मार कर अगर खुदा ने क़यामत के दिन फिर से जिंदा करना है तो पहले मारने की भी क्या ज़रुरत थी। और उस दिन सारे एक दुसरे को न जानते हों गे न एक दुसरे की जुबान समझते हों गे फिर हजारों लाखों सालों का फर्क हो गा, तहजीबें कई करवटें ले चुकी हों गी और एक की अच्छी हरकतें दुसरे को बुरी लगें गी। मालूम यह हुआ के हमारे बस में कुछ नहीं बस यह के ....हजरत इब्राहीम ज़ौक़ ने कहा था कुछ इस तरह (हम खुद अपनी मर्ज़ी से नहीं आये और अपनी मर्ज़ी से गए भी नहीं) शेर याद नहीं आ रहा। खुदा आप को खुश रखे।
संपादक : शकील अख्तर

1 comment:

  1. In this post the last few lines describing how it is unnecessary that people will be resurrected after dying here once and that they will not understand each others' language etc were taken from Shafiqur Rahman's "Pachhtawe". The very last lines are mine indeed,as are the other earlier ones.

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