Tuesday 10 May 2011

यह क्या ज़िन्दगी है

यह क्या ज़िन्दगी है, यह कैसा जहाँ है
जिधर देखिये ज़ुल्म की दास्ताँ है।
यह शेर १९६४ में फिल्म थी उस में एक गाने का है नामं याद नहीं लेकिन आज भी यह उतना ही हस्बे हल हैऔर अगर तारीख की ओर देखें तो लगता है हमेशा ही से यही सूरत हाल रही है। हाँ मगर स्थानीय तौर पर देखें तो यहाँ न्यू ज़ीलैण्ड में राम राज का सा समां लगता है कभी कभी। इतना सुकून और अमन है, ऐसी साफ सफाई है काम यूं हो जाते है, गाड़ी चोरी हो जाये तो फून पर इन्सुरांस पैसे अकाउंट में दाल दे वगैरा। एक बार पिछले साल हमारी कमीज़ और पतलून गिर गए । यह दोनों चीज़ें हम पहने हुए थे । साथ में सर जोर से दरवाज़े के शीशे पर लगा वोह चकनाचूर हो गया (शीशा , सर नहीं) और इसी लिए सर में गुमडा भी नहीं पड़ा बस ज़रा कान के पास शीशा चुभ गया । इन्शोरांस ने फ़ोन पर ही आदमी भेज कर इतना महंगा शीश बदलवा दिया
ज्यादा तर काम phone पर hi हो जाते हें , के जी घबराने लगता है। हम जो तीसरी चौथी दुनिया वाले हैं इस के आदी नहीं है । यकायक जी चाहता है भाग कर वहीँ चले जाएँ जहाँ परेशानियाँ हैं और धोके हैं और क़दम क़दम पर लुटने के सामन हें । हमारे एक दोस्त कराची में कई हफ़्तों तक सिविक सेण्टर अपने एक जाइज़ काम के लिए खुआर हो ते रहे काम नहीं हुआ आखिर क्लर्क ने पूछा तुम क्या करते हो । कहा अध्यापक हूँ । वोह बोला पहले बताना चाहिय था यहाँ अद्यापकों और बेवाओं से कुछ नहीं लिया जाता। उनका काम हो गया।(यह सच्चा वाक्या है , उन का नाम रहमान है)
हिंदुस्तान और पाकिस्तान को अगर इन की तरह बनना है तो दो बातें करनी हों गी। आबादी पर कंटरोल और education . तीसरी बात यह के वेस्ट से पंगा मत लो। वोह जो कहते है इफ यू कांट विन them ज्वाइन them । कुछ यह कहें गे की ग़ुलामी से बेहतर है के आदमी मर जाय और कौमों को अपनी पहचान और अपनी सभ्यता के अनुस्सर जीना चाहिए । ठीक है तो मरो। चानकिया के अनुसार झुकना अच्छा है के उस में समय
गुजरने के बाद हालात पलटा खा सकते हें ।
लेकिन वेस्ट में सब अच्छा है ऐसा भी नहीं है। बाहर से सब टीप टाप है अन्दर देखो तो ज़ादा तर लोग बचैनी का शिकार हें। मार्केट इकोनोमी ने सब को , अधिकतर लोगों को, क़र्ज़ के जाल में फंसा कर रखा हुआ है। अंदरूनी सुकून जो हमें वहां सूखी रोटी और चटनी के साथ मिलता है वह यहाँ बहुत मुश्किल है यह एक डिलेमा है ।

क्या ख्याल है?
शकील अख्तर


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